Wednesday 9 November 2011

करंज से कर्म की ओर

आजकल करंज के पेड़ो को जाने क्या रोग लग गया है.सारे पत्तों में सफ़ेद बिंदियाँ सी  लग गई हैं ,गोल चकत्तों में पत्तों का रंग उड़ गया है.सम्पूर्ण वृक्ष  में उभरी बिंदियों से करंज का चमकता गाढ़ा हरा रंग दब सा गया है. वनस्पति विज्ञानं की मदद से पता चला कि यह लीफ रस्ट है जो रेगुलेरिया फफूंद से होता है.                                       
          करंज के  गाढ़े हरे चमकते पत्तों की ऐसी दुर्दशा देख मन कष्ट महसूस कर रहा है, यह सोच  कर कि इससे करंज को तकलीफ तो हो रही होगीडॉ. जगदीशचंद्र बसु ने  किस्को-ग्राफ के माध्यम से वैज्ञानिक जगत में यह बात सिद्ध कर दी थी और हम  तो बचपन से ही पौध-जगत के सोने जागने खुश और उदास होने की मानव सम क्रियाओं ,भावनाओं के चिरंतन विश्वास के साथ ही बड़े हुए हैं.
         करंज के अन्य कष्टों का तो अहसास नहीं पर ये महसूस हो ही रहा है कि पत्ते के   जितने क्षेत्र  के ऊतक सूख से गए है उतने क्षेत्र के द्वारा सामान्य परिस्थितियों में बनाये  भोजन की कमी का सामना तो पेड़ कर  ही रहे  होंगे जैसे गरीब के बीमार होने पर रोज कमाने खाने वाले गरीब को भूखे पेट सोना पड़ता है. एक तो बीमारी उस पर भूख की दोहरी मार पड़ती है. यदि पेड़ अपनी भावनाएं  बयां कर पाते तो हमें वास्तविक स्थिति ज्ञात होती पर क्या हमे अपनी भावनाएं बयां करने में सक्षम गरीब की स्थिति भी ज्ञात होती है?
       हम में से कुछ  करंज की बीमारी से भी या कहे ऐसी किन्ही अन्य  आकस्मिकताओं से भी दुखी होते हैं और गरीब की गरीबी से भी.हमारे  कई दिनों के गपशप के  घंटे गरीबी की इस तकलीफ से व्यथित हो गरीबों की परिस्थितियों पर बाते करते,सरकार को कोसते  गुजरते है जैसे अभी हर दिन के कुछ मिनट करंज के पेड़ों के लिए दुखी होते बीतते है, लेकिन हम न करंज की तकलीफ मिटाने कुछ करते है न ही गरीब के कुछ काम आने की कोशिश  करते है, हाँ!! पर अपने काम, आराम, मनोरंजन के बाद कुछ समय  बचे तो इनके दुःख पर सोचें  या न सोचें  चर्चा जरूर करते हैं.
       आपसे निवेदन है कि यहाँ करंज और गरीबी को रूपक के रूप में लें और हम का सामान्यीकरण कर देखें तो अन्य कई समस्याएं इन के रूप में अपनी बात कहती महसूस होंगी.लेकिन मूल प्रश्न यह हैं कि -
           क्या चर्चा इनके दुःख कम कर सकती है?         
          क्या सिर्फ बातों से हमारा कर्त्तव्य पूरा हो जाता है?
          क्या हम अपनी हदों में ही सही हजार बातों की जगह एक काम की जिम्मेदारी उठा सकते हैं?
     मुझे पता है इन प्रश्नों के उत्तर का क्रम होगा- ना, ना,हाँ .लेकिन कब हमारे ये उत्तर कर्म का रूप ले सकेंगे? सोचिये-सोचिये....... अच्छा सोचने से कुछ जाता नहीं आता ही है आखिर कर्म सोच  का ही प्रतिफल होते हैं.और सोच कर्म में प्रतिफलित होती है. मैंने  सोचा  है   कि मैं  करंज में  फोलियर स्प्रे  ना सही पानी में घोल फफूंदीनाशक  जड़ो में डाल देती हूँ.आखिर नहीं मामा से काना मामा बेहतर होता है.