Friday 16 December 2011

बरसात की बरसती दोपहर .......


          आज की बरसती बरसाती दुपहरी में सोने का मन नहीं है बल्कि बालकनी में बैठ  वर्षा में भीगती सड़क की जिंदगी देखने, महसूस करने का मन कर रहा है. सामने सड़क जो दिन-रात चलती रहती है अभी भी चल रही है. हार्न,इंजन की आवाज,ऑटो,स्कूटर,मोटरसायकिल ,कार,रिक्शा सबकी अपनी अपनी पर मिलीजुली आवाजें. बारिश  अभी-अभी कम हुई है,भीगा-भीगा,धुला-धुला सा मौसम है.घनी बदली छाई हुई है.बादल कभी भी फिर से बरसना शुरू कर सकते हैं पर लोगो की रेलमपेल नहीं रूकती .जाने सभी को कितना जरूरी काम होता है जो मुसलाधार बारिश,कड़ी गर्मी,धुप,लू,धुल,आंधी,ठिठुराती ठण्ड,कुछ भी लोगो को रोक नहीं पाती है.
                  लो इस बरसते पानी में बाइक पर शायद पापा-बेटे चले रहे है, पापा भीग रहे है पर बेटे को जो बमुश्किल चार साल का होगा रेनकोट में पैक किया हुआ है. मानो कह रहे हो बेटा संसार की सारी परेशानियाँ   मै झेल लूँगा पर तुझे बचा के रखूँगा.भगवान जाने भविष्य में यह बेटा अपने पापा को पूरे मान -सम्मान  के साथ घर में रखेगा कि वृद्धाश्रम की राह दिखायेगा.
                            
               बस  इनके पीछे ही चली रही है पञ्च-कन्याओं  की  हंसती-खिलखिलाती टोली सर  पर चूनर धरे .जाने इस उम्र में खिलखिलाहट कहाँ से उमगते चली आती है और बस  आते ही रहती है कुछ सालों  बाद सबकी अपनी -अपनी जिंदगी होगी और शायद ही कभी सालों में आपस में मिलना होगा,जाने किन ऊँचाइयों तक ये पहुचेंगी पर ये सब कहाँ जानता सोचता है अल्हड़पन.
                           
               सायकल पर पति-पत्नी और गोद में छोटा बच्चा भीगते चले रहे है. माँ बच्चे को अपनी गोद में आंचल से छुपा बारिश से  बचाने की कोशिश कर रही है. इन्हें  देख कर ऐसा लग रहा है कि शायद  इनके पास बारिश  से  बचने का साधन खरीदने को पैसा ही नहीं  हो. शायद  पत्नी घर जा कर सर्दी से बचने काली चाय बनाएगी और हर विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए बड़ा हुआ इनका शरीर भीगने का विपरीत प्रभाव भी झेल जायेगा.
                              लो अब बारिश तेज हो गई लेकिन सड़क पर आवाजाही अभी भी जारी है. सबने बारिश से बचने के अलग-अलग तरीके अपना रखे हैं- किसी  दोपहिये में पति रेनकोट में है तो पत्नी छतरी लिए, तो किसी में पति-पत्नी दोनों रेनकोट में, तो किसी में दोनों सवार एक ही छतरी में समाने की कोशिश करते हुए तो कोई बिना किसी साधन के भीगते चला जा रहा है. ऐसे ही बहुत से  लोग सड़क पर आ-जा रहे है इन सबकी परिस्थितियां एक है पर अलग है तो मुखमुद्राएँ, अहसास और भावनाएं.
                            किसी के चेहरे पर बारिश में भीगने, अपनी कार होने की खीज है तो किसी के चेहरे में बरसती बूंदों के तन से छुआने की सिहरन या इससे बचने की कोशिश का आनंद. आनंद या ख़ुशी तो मन की अवस्था होती है और  यह अपने ही अंदर कहीं  से  उत्पन्न होता है कोई बाहरी परिस्थिति आपको आनंद का अहसास नहीं करा सकती,ख़ुशी नहीं दे सकती. इसका स्रोत हमारे ही अंदर होता हैऔर जिसने  यह स्रोत ढूंढ़ लिया उसकी जिंदगी में आनंद की अविरल धारा बहती  रहती है.
                     जैसे यह जोड़ा जो मुसलाधार बारिश में एक छतरी में समाने की कोशिश में भीगते आनंदित दिख रहा है. पहले बारिश से बचने की कोशिश ,तेज हवाओं से इधर-उधर होती छतरी, लो हवा से उडी छतरी और बरस पड़ी फुहार तो पहले अचंभित हुआ फिर खिल गया चेहरा ,बारिश की छुअन की सिहरन महसूस हुई, हाथ आगे बढ़ आये, पानी की अधिकाधिक बूंदों की सिहरन  पाने चेहरा ऊपर हो आया .अब पानी उड़ाती चौपहिया उनके बाजू से निकली तो उसके  उड़ाए पानी से बचने का आनंद चेहरे पर खिल आया और फिर आगे चौपहिये को पानी उड़ाते देखने का आनंद, सड़क पर भरा पानी कूद कर पार करना अक और रोमांचक आनंद, इन्हें देख ऐसा लग रहा है कि बारिश बंद  हो जाएगी तो शायद ये नहीं  भीगने के कारण आनंदित हो जायेंगे. आनंद तो  "जिन खोजा तिन पाइयाँ , गहरे पानी पैठ." है. 
                   सामने मैदान में झुग्गी- बस्ती के बच्चों की बारिश में भीगते धींगा- मस्ती चल रही है.अलग-अलग समूह में बच्चे छू -छुवाउल,फुटबाल खेलते,पानी-कीचड़ में गिरते-पड़ते मस्ती मार रहे है. ये आनंद तो बचपन में हमने भी खूब उठाये थे. पानी गिरने पर घर से निकल आते, सायकल  चलातेसड़क पर पानी में खेलते, मछली पकड़ते लेकिन   अब जाने  क्यों मिटटी -पानी अन-हाइजनिक और उसमे   में खेलना गंवारपन हो गया है और हम ही बच्चों को प्रकृति से दूर से दूर करते जा रहे है.
अब शाम हो रही है अंदर  चलें और सड़क पर गुजरते  लोगों की जिंदगी को अपनी नज़रों  से देखना छोड़  कर अपनी जिंदगी के  काम शुरू  करें.
नोट- ये अनुभव बारिश के मौसम का है जो आपसे अभी साझा कर रही हूँ.                            

Wednesday 9 November 2011

करंज से कर्म की ओर

आजकल करंज के पेड़ो को जाने क्या रोग लग गया है.सारे पत्तों में सफ़ेद बिंदियाँ सी  लग गई हैं ,गोल चकत्तों में पत्तों का रंग उड़ गया है.सम्पूर्ण वृक्ष  में उभरी बिंदियों से करंज का चमकता गाढ़ा हरा रंग दब सा गया है. वनस्पति विज्ञानं की मदद से पता चला कि यह लीफ रस्ट है जो रेगुलेरिया फफूंद से होता है.                                       
          करंज के  गाढ़े हरे चमकते पत्तों की ऐसी दुर्दशा देख मन कष्ट महसूस कर रहा है, यह सोच  कर कि इससे करंज को तकलीफ तो हो रही होगीडॉ. जगदीशचंद्र बसु ने  किस्को-ग्राफ के माध्यम से वैज्ञानिक जगत में यह बात सिद्ध कर दी थी और हम  तो बचपन से ही पौध-जगत के सोने जागने खुश और उदास होने की मानव सम क्रियाओं ,भावनाओं के चिरंतन विश्वास के साथ ही बड़े हुए हैं.
         करंज के अन्य कष्टों का तो अहसास नहीं पर ये महसूस हो ही रहा है कि पत्ते के   जितने क्षेत्र  के ऊतक सूख से गए है उतने क्षेत्र के द्वारा सामान्य परिस्थितियों में बनाये  भोजन की कमी का सामना तो पेड़ कर  ही रहे  होंगे जैसे गरीब के बीमार होने पर रोज कमाने खाने वाले गरीब को भूखे पेट सोना पड़ता है. एक तो बीमारी उस पर भूख की दोहरी मार पड़ती है. यदि पेड़ अपनी भावनाएं  बयां कर पाते तो हमें वास्तविक स्थिति ज्ञात होती पर क्या हमे अपनी भावनाएं बयां करने में सक्षम गरीब की स्थिति भी ज्ञात होती है?
       हम में से कुछ  करंज की बीमारी से भी या कहे ऐसी किन्ही अन्य  आकस्मिकताओं से भी दुखी होते हैं और गरीब की गरीबी से भी.हमारे  कई दिनों के गपशप के  घंटे गरीबी की इस तकलीफ से व्यथित हो गरीबों की परिस्थितियों पर बाते करते,सरकार को कोसते  गुजरते है जैसे अभी हर दिन के कुछ मिनट करंज के पेड़ों के लिए दुखी होते बीतते है, लेकिन हम न करंज की तकलीफ मिटाने कुछ करते है न ही गरीब के कुछ काम आने की कोशिश  करते है, हाँ!! पर अपने काम, आराम, मनोरंजन के बाद कुछ समय  बचे तो इनके दुःख पर सोचें  या न सोचें  चर्चा जरूर करते हैं.
       आपसे निवेदन है कि यहाँ करंज और गरीबी को रूपक के रूप में लें और हम का सामान्यीकरण कर देखें तो अन्य कई समस्याएं इन के रूप में अपनी बात कहती महसूस होंगी.लेकिन मूल प्रश्न यह हैं कि -
           क्या चर्चा इनके दुःख कम कर सकती है?         
          क्या सिर्फ बातों से हमारा कर्त्तव्य पूरा हो जाता है?
          क्या हम अपनी हदों में ही सही हजार बातों की जगह एक काम की जिम्मेदारी उठा सकते हैं?
     मुझे पता है इन प्रश्नों के उत्तर का क्रम होगा- ना, ना,हाँ .लेकिन कब हमारे ये उत्तर कर्म का रूप ले सकेंगे? सोचिये-सोचिये....... अच्छा सोचने से कुछ जाता नहीं आता ही है आखिर कर्म सोच  का ही प्रतिफल होते हैं.और सोच कर्म में प्रतिफलित होती है. मैंने  सोचा  है   कि मैं  करंज में  फोलियर स्प्रे  ना सही पानी में घोल फफूंदीनाशक  जड़ो में डाल देती हूँ.आखिर नहीं मामा से काना मामा बेहतर होता है.